धर्म क्या है?
"धार्यते इती धर्मः" अर्थात धर्म वही है जो धारण करने योग्य हो।धर्म के इसी परिभाषा को अन्य शब्दों में इस प्रकार कहा गया है, धर्मः यो बाधते धर्मः,न स धर्मः कुधर्मः तत, अविरोधी तु यो धर्मः, स धर्मः सत्यविक्रमः। उसी परिभाषा को और भी सरल और स्पष्ट हमारे महापुरुषों और विचारकों ने बना दिया जो निम्न है- मनुष्य जैसे विज्ञान का दुरुपयोग किया है वैसे हीं उसने धर्म का भी दुरुपयोग हीं किया है,क्यों की आज की दुनिया में हम सब के सब नास्तिक है।हमारा ईश्वरीय सत्ता में विश्वास हमारी पूजा और प्रार्थना सब के सब कृत्रिम आचार है। - अरविंदो यदि हम धार्मिक होने का दावा करते हैं तो हमें धर्म को अपने जीवन में उतारना चाहिए यदि जीवन धर्ममय नहीं है तो धर्म निर्जीव सिद्धांत मात्र रह जाता है।- अरविंदो मैं धर्म के किसी भी ऐसी व्याख्या को मानने से इंकार करता हूं जो महाविद्वानों का होने पर भी नैतिक भावना और बुद्धि के विरूद्ध है।मेरा धर्म हिन्दू धर्म नहीं है,बल्कि वह धर्म है जो हिंदुत्व से भी आगे जाता है,जो हिंदुत्व के भीतर के सत्यों पर आधारित है ,जो क्...